बिन घर के शहरी

आज के प्रगतिशील भारत का सूचक कई सारे शहर है जो प्रगतिशीलता का प्रतिबिंब है ।
एक तरह से ,
अपनी यात्रा के दौरान मैंने गुड़गांव जो अब गुरुग्राम हो गया वापस इसका पहले भी यही नाम रहा था ।
यहां आप को बड़ी बिल्डिंग बड़ी गाड़ियां अच्छे रेस्तरां और होटल दिखे तो कोई आश्चर्य नही होना चाहिए ।
मग़र वही आप रेलवे स्टेशन से थोड़ा आगे बढेंगे या हाइवे के तरफ़ जायेगे तो आप पाएंगे ।
की आज भी बहुत से परिवार सड़क के किनारे तम्बू लगा कि नाले और उसकी सड़ी कीचड़
में अपना जीवन बिता रहे है ।
न ही उन्हें कोई काम मिलता है न उनके पास कोई पहचान है , न ही जनसंख्या की गड़ना में वो आते होंगे ।
मग़र ह वोट देने जरूर जाते होंगे ।
मग़र  खास कर राज्य सरकार को इस विषय पर कोई नियम लाना चाहिए ।
जिससे ऐसे लोग के जीवन भी सुधर जाए ।
मैं इस शहर में कई साल आया गया मगर ई की स्थिति जस की तस है ।
लेकिन आखिर कब तक झुटे समानता का आडम्बर दिखायेंगे ।
आरोप प्रत्यारोप चलता रहेगा मग़र इन्हें इस नारकीय जीवन से उबार ने के लिए कुछ करना होगा ।
मगर इनकी भी एक समस्या है ये गलत काम और वैश्या वृति में संलिप्त है और खुद शायद निकलना भी नही चाहते ।
ऐसे ही कई घुमन्तु परिवार आप को राजस्थान के सीकर से आगे चुरू और चिरावा के हाइवे के बगल बगल में एक चलता फिरता कॉलोनी देख सकते है ।
आप उत्तराखंड के पहाड़ों में ऐसे विरले परिवार देख सकते है जिससे आप को आशा भी नही कर सकते कि कोई होगा ।
क्या ऐसे जीवट के लिए कोई नियम है ।
ऐसे कई उदाहरण है पर बात लम्बी हो जाएगी ।

अशोक द्विवेदी "दिव्य"

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