निर्मोही कृष्ण

कृष्ण कि प्रासंगिता द्वापर से ज्यादा कलियुग में हैं क्योंकि अगर कृष्ण के ज्ञान और जीवन को हम अगर बारीकी से समझे तो हमे साफ तौर पर समझ पाएंगे कि कृष्ण परम त्यागी और सतत जीवन में लीलाएं करते हुवे यात्रा करते रहे।

अपने जीवन में सभी रसो में रह के भी किसी रस के आदी न हो कर  वैरागी ही रहे,
कृष्ण ने शुरू से ही प्रेम से ज्यादा त्याग का प्रदर्शन किया। 

अपनी जीवन में त्याग को बनाए हुवे जीवन यात्रा में बढ़ते रहे और मनुष्यो को त्याग का ज्ञान का महत्व को अपने लीला द्वारा समझाया।

ज्ञान में भी जो हमे आज श्रीमद्भागवत के द्वारा प्राप्त होता हैं उसके भी मूल में त्याग ही है। 
लेकिन इस बात का अर्थ भी है और न मानने वालो का विरोध भी क्योंकि कृष्ण को प्रेम का नीति का राजनीति और मोक्ष प्रदान करने वाला माना जाता है।

लेकीन इसे जरा इस तरह से देखे जब कृष्ण का जन्म हुआ तो जन्म देने वाले माता पिता से अलग हुवे और जहा लालन पालन हुआ एक समय पर उसे भी त्याग किया बाल सखा को त्यागा और सबसे ज्यादा प्रेम और सर्वस्व न्यौछावर करने वाली राधारानी को भी छोड़ के आगे बढ़े और द्वारिका पहुंचे ऐसा और ऐसे ही जीवन के अंतिम पड़ाव में पहुंचे।

इन सभी घटना को विस्तार से देखेगे तो कृष्ण का संदेश हम साफ तौर पर समझ पाएंगे कि किस तरह से वो संसार में रह के भी संसारिक जीवन में त्यागी होने का संदेश दिया।

लेकिन जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी वाली बात है।
कृष्ण प्रेम के नही त्याग के प्रतिमूर्ति है उनके संदेश में मूल यही रहा प्रेमी रहिए मोह न करिए संसारिक हो के भी वैरागी रहिए और वे हमेशा ही प्रासंगिक है।

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