असफलता कि वजह

मनुष्य भाव से भरा एक ईश्वर का सबसे खुबसूरत रचना है, भाव ही मनुष्य को पशु जानवरों से अलग बनाता हैं,और महान दार्शनिक सुकरात ने भी अपने वक्तव्यों में कहा है कि, "मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं अथवा संत या पागल है" ।
इस वाक्य का मूल में अगर जाए तो हम ये समझ पाएंगे कि जो हमारा समाज है जिसमें हम सभी रह रहे हैं, अगर इसमें से अगर भाव को अलग कर दे तो समाजिक ढांचा जो इतने समय में विकसित हुआ है वो बिखर जायेगा ।
क्योंकि हर क्रिया के पीछे एक भाव होता है और वही भाव मनुष्य को चलायमान बनाता है और वही भाव ही समाज निर्माण कि नीव हैं।
लेकिन भाव ही इंसान को कभी कभी भटका भी देता है, और असफलता के गर्त में लेकर चला जाता है, क्योंकि कभी कभी व्यक्ति भाव के वश में हो कर ऐसे निर्णय ले लेता है, जिसका परिणाम उसे आगे आने वाले समय में समझ में आता है।

कई बार हम किसी खास व्यक्ति के लिए हम भाव विभोर हो कर के सब छोड़ कर किसी खास व्यक्ति के लिए आ जाते है और एक समय के बाद वही व्यक्ति हमे मूर्ख और धूर्त साबित कर देता है,उसी वजह से भाव प्रधान व्यक्ति स्वयं को ठगा सा महसूस करता है और वो खुद को या तो कठोर भाव का अथवा समाज से कट जाता हैं। 
जिससे समाज का एक अच्छा व्यक्ति समाज से कम हो जाता है, इसलिए हर व्यक्ति को भाव से नही बल्कि अच्छे और ख़ास सुझबुझ और समझ के बाद ही कोई भी निर्णय लेना चाहिए, अन्यथा वो किसी पक्ष का नही रह जाता है, एक समय के बाद इसलिए किसी भी निर्णय से पहले बहुत सूक्ष्म निरीक्षण कर के ही किसी नतीजे पर पहुंचना चाहिए ।

                             अशोक द्विवेदी "दिव्य"

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