झुग्गियों से झांकती जिंदगी

दोस्तो आप अगर अपने जीवन में अगर यात्रा नही करते है, तो आप इस जीवन का केवल एक सीमित दुनिया और समाज और उनसे जुड़ी अच्छे बात बुरी बात और उनके दुख सुख और इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण अपने जीवन और मिलने वाली सुविधा के महत्व को समझ पाएंगे।
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यदि आप यात्रा नही करते है तो आप इतने मूलभूत विचार विमर्श और अनुभव को खो देगे, इस लिए मैं अक्सर समय मिलता है तो अपने आस पास से की यात्रा कर ने निकल जाता हूं।

इसी तरह एक छोटी सी यात्रा का अनुभव में आप जो बताता हु ये खासकर उन लोगो के जो अपने जीवन परिवार समाज और सुविधा को महत्व नही देते है।
उस रोज कि बात है जब मैं दिल्ली के पटेल नगर अपना जॉब के इंटरव्यू देकर मैं वहां के स्टेशन वाले रास्ते पर चल पड़ा, ये मेरी आदत थी,की हर दिन जितना संभव हो उतना पैदल चलता था, इससे आस पास के जीवन को निहार पाने और थोड़ा मानसिक तनाव से शांति और सेहत लाभ ये तीन प्रकार के लाभ मिल जाते थे।

जब इंडस्ट्रियल एरिया से मैं आगे बढ़ा तो दीवाल से सटे झोटे झुग्गियां बनी हुई थी, जिसमे सुविधाओ कि खासी कमी होगी ऐसा मेरा अनुमान था, जैसे में और कुछ आगे बढ़ा तो देखा कि गंदे नाले के किनारे बसी जुग्गियो की एक शृंखला थी, जिसमे मुश्किल से जीवन सास ले रही थी लेकिन वहा के लोग के नजरो में उस बात की स्वीकृति दिखती थी, और ऐसा लगता था मानो वे इस जीवन को स्वीकार कर के उसके सबक के अनुसार अपने जीवन शैली को ढाल चुके है।

बस कुछ ही कदम के दूरी पर चलने पर प्लास्टिक के ड्रम में पानी भरने की एक लम्बी लाइन लगी थी जिसमे हर उम्र के लोग शामिल थे, जिसे देख के मुझे नाना पाटेकर जी की फिल्म क्रांतिवीर याद आ गई कैसे बस्तियों में लोग पानी के लिए या शौचालय जाने के लिए झगड़ते और हर मूलभूत सुविधाओ के लिए आपस में लड़ते थे ।
यहां बिलकुल उसी तरह का जीवन था, बिल्कुल सोच से परे और अत्यंत कठिन जिसमे पानी का ड्रम भरने के लिए बहस छोटे उमर के बच्चे भी छोटे बाल्टी प्लास्टिक की बोतल को भर रहे थे। ।

ये सब देखते हुवे मैं पटेल नगर रेलवे स्टेशन पहुंच गया और गुडगांव के लिए एक टिकट लिया और थोड़े देर के बाद सिरसा एक्सप्रेस आ गई मैं जल्दी से अपनी आदत के अनुसार खिड़की वाली सीट पकड़ लिया हालाकि ट्रेन में खास भीड़ नही थी।

ट्रेन आगे चल पड़ी और पटेल नगर रेलवे पटरी के दोनो तरफ झुग्गियां टपरी रेल की पटरी पर दुकान लगी थी,पटरी पर महिला समूह चर्चा पर बैठा था,और इस कदर आश्वस्त हो के बैठी थी। जैसे सालो से ऊस पर कभी रेल आई ही न हो घरौंदे जैसे बने घर थे जैसा बॉलीवुड वाले सिनेमा में दिखाते है । 

तभी मुझे ये अहसास हुआ कि जनसंख्या वृद्धि कितनी बड़ी समस्या है। इस प्रकृति देश और समाज के लिए, मानो जनसंख्या विस्फोट का नजारा आखों के सामने था लेकिन इसका उपाय भी हम सब को मिल के ही करना है।

बाहर से भले सब अलग दिख रहे थे वहा लेकिन वहा भी उच्च नीच का भाव सास बहू की आपसी क्लेश और एक दूसरी की बुराइयां और भी वो सारी सामाजिक बुराई जो उच्च और मध्यम वर्ग में होता है वो यहां भी अपने स्तर से व्याप्त थे। 

लेकिन इन सब के इतर उन में भी जीवन था संघर्ष से भरा हुआ जिसे न अपनी जमीन नसीब हुई न शहर ने अपना बनाया बस फस गए कचड़े के ढेर के किनारे पर और स्वीकार कर लिया शहर की दासता लेकिन न तो वे शहरी है न देहाती है वो बस जीवन से ठगे गए लोग है,जो उम्मीद भरी नजरो से आने जाने वाले रेल को निहारती है और मन में कहती होगी की किसी दिन मैं भी यहां के गंदगी से दूर अपने गांव जानें की रेल में टिकट कटा के जाऊंगा।

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